जाने कहां गए वो दिन....?
जाने कहां गए वो दिन....?
कभी वो दिन भी हुआ करते थे जब घर में किसी मेहमान के आने की ख़बर से घर भर उठता था। रिश्तेदारों के आने पर चाय-नाश्ते से लेकर बातों के सिलसिले ऐसे चलते थे कि समय का पता ही नहीं चलता था। एक-एक दिन की मेहमान नवाज़ी, साथ खाना खाना, देर रात तक बात करना—ये सब रिश्तों की गर्माहट का हिस्सा हुआ करते थे। वो वक्त जब किसी के घर जाने के लिए साइकिल या पैदल ही निकल पड़ते थे, और रास्ते में फल या कुछ मिठाई खरीद कर पहुंचते थे।
अब वही रिश्तेदार एक कॉल पर, या फिर बस व्हाट्सएप मैसेज पर बात कर लेते हैं। टेक्नोलॉजी ने दूरी मिटा दी है, लेकिन दिलों की दूरियां बढ़ा दी हैं। रिश्तों की मिठास को इस आधुनिकता और तकनीकी सुविधा ने कहीं पीछे छोड़ दिया है।
बदलते वक़्त के साथ बदलते रिश्ते
पहले के ज़माने में एक ख़ास परंपरा हुआ करती थी कि जब भी किसी रिश्तेदार के घर जाना होता था, हाथ में केला, मिठाई या फल लेकर जाते थे। यह केवल एक भेंट नहीं थी, बल्कि अपनेपन का प्रतीक था। घर पहुंचते ही बुजुर्ग बड़े प्यार से पूछते, "क्या हाल हैं? और सब कैसे हैं?" आज, वो हाथ में चार्जर और ईयरफोन लेकर आते हैं, और पहले सवाल में ही टेक्नोलॉजी की कमी निकल जाती है—"बुआ, आपके पास फोन का चार्जर है क्या?"
वो दौर था जब फोन एक विलासिता हुआ करती थी। किसी के पास लैंडलाइन फोन हुआ करता था, और हर किसी को इसकी जानकारी होती थी। रिश्तेदारों के फोन पर कभी जन्मदिन की बधाइयाँ दी जाती थीं, तो कभी किसी काम के लिए सलाह-मशविरा होता था। दो रुपये प्रति मिनट की कॉल्स महंगी हुआ करती थीं, फिर भी लोग बात करने के लिए समय निकालते थे। और आज? हर किसी के पास स्मार्टफोन है, कॉल्स फ्री हैं, लेकिन रिश्तों की बातचीत में कोई गर्मजोशी नहीं बची है।
छोटे शहरों में बड़े रिश्तों का ताना-बाना
छोटे शहरों में आज भी कुछ हद तक यह परंपरा जीवित है। परंतु बड़े शहरों में व्यस्त जीवनशैली ने इसे खत्म कर दिया है। मोटरसाइकिल और गाड़ियों के होते हुए भी रिश्तेदारों के घर जाने का सिलसिला जैसे खत्म हो गया है। पहले जब लोग गाँव या कस्बों से शहर जाते थे, तो सप्ताह भर ठहरते थे। घर की रौनक बनी रहती थी। लेकिन अब? महज़ दो घंटे के लिए रिश्तेदार आते हैं और वह भी अपनी जल्दी में। जैसे जल्दी आना है, जल्दी जाना है।
बच्चों के रिश्तों पर प्रभाव
बच्चों की बात करें तो वो अब रिश्तेदारों के नाम से भी अंजान होते जा रहे हैं। पहले परिवार के बड़े-बुजुर्ग बच्चों को रिश्तों की महत्ता सिखाते थे, उन्हें घर के रीति-रिवाजों से जोड़ते थे। अब बच्चे अपने गैजेट्स और वर्चुअल दुनिया में खोए हुए हैं। पारिवारिक रिश्तों का स्वाद उन्हें शायद ही चखने को मिलता है।
टेक्नोलॉजी ने दी सुविधा, छीन लिया अपनापन
इस तेज़ रफ्तार ज़िंदगी में, हम टेक्नोलॉजी के ज़रिये तो सबके संपर्क में हैं, लेकिन भावनात्मक रूप से दूर होते जा रहे हैं। रिश्तों का वो पहले जैसा अपनापन, प्यार और समझदारी अब कहीं खो गई है। रिश्तेदारों के घर जाना अब एक औपचारिकता सी बन गई है। ज़्यादा तर फंक्शन, शादियाँ, या किसी ज़रूरी काम के लिए ही लोग मिलते हैं। पहले जहां मिलने-मिलाने में भावनाओं की अदला-बदली होती थी, अब वहां केवल डिजिटल संदेश और औपचारिक कॉल्स हैं।
आगे का रास्ता
भले ही हमने तकनीकी विकास में बहुत कुछ हासिल किया हो, पर रिश्तों की गर्माहट और जुड़ाव को हमने पीछे छोड़ दिया है। हमें इस बात का एहसास करना होगा कि रिश्तों की सुंदरता बस मिलने-मिलाने में नहीं, बल्कि समय बिताने और भावनात्मक जुड़ाव में होती है।
आइए, एक बार फिर से उस पुराने दौर को जीने की कोशिश करें, जहाँ हर त्योहार पर परिवार एक साथ बैठता था, रिश्तेदारों के आने पर घर की रौनक बढ़ जाती थी, और फोन की घंटी रिश्तों के तारों को जोड़ती थी। शायद हमें फिर से "सर्वे भवन्तु सुखिनः" की भावना को अपनाना होगा।
निष्कर्ष:
तकनीकी प्रगति ने हमें सुविधाएँ दी हैं, लेकिन रिश्तों की मिठास कहीं पीछे छूट गई है। रिश्तेदारों के घर जाना, फल लेकर पहुंचना, और दिन भर की गपशप में जीवन की थकान उतर जाना, अब सिर्फ यादें बनकर रह गए हैं। हमें अपने जीवन में एक संतुलन स्थापित करना होगा, जहाँ हम आधुनिकता और पुराने समय के रिश्तों के साथ तालमेल बैठा सकें।
संकल्प:
सभी सुखी हों, सभी स्वस्थ हों, और हम सभी फिर से उन रिश्तों को जीवित करें, जो कभी हमारी संस्कृति का हिस्सा थे।
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