आतंकवाद पर अभिव्यक्ति की आजादी तो इमरजेंसी पर सेंसर क्यों?

आतंकवाद पर अभिव्यक्ति की आजादी तो इमरजेंसी पर सेंसर क्यों?

By: Yogesh Kumar 

देश में हाल ही में रिलीज़ हुई Netflix की वेब सीरीज़ IC 814 ने एक नई बहस को जन्म दिया है। यह सीरीज़ 1999 में हुई कंधार प्लेन हाईजैक की आतंकी घटना पर आधारित है, लेकिन इसमें जिस तरह पाकिस्तान को क्लीनचिट देकर आतंकवाद का महिमा मंडन किया गया है, उसने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। सवाल यह है कि आखिर अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर एक ऐसी सीरीज़ कैसे प्रसारित हो सकती है जो न केवल तथ्यों से छेड़छाड़ करती है, बल्कि आतंकवाद को भी महिमामंडित करती है? यह सीरीज़ हर घर के ड्राइंग रूम और हर बच्चे, बड़े, महिला, किसान, मजदूर के मोबाइल फोन तक पहुंच चुकी है। लेकिन जब बात भारत में आपातकाल पर बनी एक ढाई घंटे की फिल्म की होती है, तो उसका सिनेमा हॉल तक पहुंचना मुश्किल हो जाता है। विरोध और धमकियों के चलते फिल्म की रिलीज़ टालनी पड़ती है, और बिना देखे ही एक वर्ग उसके विरोध में खड़ा हो जाता है।



अभिव्यक्ति की आज़ादी की सीमाएं:

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी बेहद महत्वपूर्ण है, लेकिन यह भी सच है कि इस आज़ादी की एक सीमा होनी चाहिए। यह सीमा तब और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है जब किसी अभिव्यक्ति का सीधा संबंध राष्ट्रीय सुरक्षा और सामाजिक ताने-बाने से हो। IC 814 जैसी वेब सीरीज़ में तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करना, और एक आतंकी देश को निर्दोष दिखाना न केवल हमारे शहीदों का अपमान है, बल्कि यह राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ खिलवाड़ भी है।

इसके विपरीत, जब एक फिल्मकार आपातकाल पर एक फिल्म बनाता है, तो उसे सिनेमा हॉल तक पहुंचने से पहले ही विरोध का सामना करना पड़ता है। बिना देखे फिल्म को लेकर विरोध करना और धमकियां देना क्या अभिव्यक्ति की आज़ादी का हनन नहीं है? क्या यह दोहरे मापदंड का संकेत नहीं देता?

सेंसरशिप की जरूरत:

भारत में सेंसरशिप का मुद्दा हमेशा से ही विवादों में रहा है। एक ओर, जहां फिल्मों को सेंसर बोर्ड से मंजूरी लेनी पड़ती है, वहीं दूसरी ओर, ओटीटी प्लेटफार्म पर इस प्रकार की कोई बाध्यता नहीं है। इसका मतलब यह है कि एक तरफ सेंसर बोर्ड फिल्मों पर अपनी पैनी नजर रखता है, वहीं दूसरी ओर ओटीटी प्लेटफार्म पर किसी भी प्रकार की सामग्री बिना किसी रोक-टोक के प्रसारित हो सकती है।

लेकिन सवाल यह है कि क्या ओटीटी प्लेटफार्म पर सेंसरशिप की जरूरत नहीं है? जब इन प्लेटफार्म्स की पहुंच और प्रभाव सिनेमा हॉल से कहीं अधिक है, तो क्या यह जरूरी नहीं कि इन पर भी कुछ नियम और प्रतिबंध लगाए जाएं?



आतंकवाद का महिमामंडन और नैतिक जिम्मेदारी:

IC 814 जैसी सीरीज़ की सफलता और उसकी व्यापक पहुंच एक महत्वपूर्ण सवाल उठाती है: क्या रचनात्मक स्वतंत्रता के नाम पर किसी भी प्रकार की सामग्री को प्रसारित किया जाना उचित है? क्या यह हमारी नैतिक जिम्मेदारी नहीं बनती कि हम ऐसी सामग्री का विरोध करें जो हमारे समाज और देश की सुरक्षा के लिए खतरा बन सकती है?

इस बहस का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि क्या अभिव्यक्ति की आज़ादी की आड़ में आतंकवाद जैसे गंभीर मुद्दों का महिमामंडन किया जाना चाहिए? यह सच है कि कला और सिनेमा को समाज का आईना कहा जाता है, लेकिन जब यह आईना समाज को गलत दिशा में ले जाए, तो क्या उसे रोकना जरूरी नहीं हो जाता?

निष्कर्ष:

IC 814 जैसी सीरीज़ ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी का दुरुपयोग देश और समाज के लिए कितना खतरनाक हो सकता है। वहीं दूसरी ओर, आपातकाल पर बनी फिल्म का विरोध यह दर्शाता है कि हमारे समाज में अभी भी कुछ मुद्दे ऐसे हैं जिन्हें छूने की हिम्मत कम ही लोग कर पाते हैं।

यह समय है कि देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी और सेंसरशिप के मुद्दों पर गंभीरता से विचार किया जाए। ओटीटी प्लेटफार्म पर भी सेंसरशिप के नियम बनाए जाने चाहिए ताकि किसी भी प्रकार की सामग्री, जो राष्ट्रीय सुरक्षा और सामाजिक सद्भाव के लिए खतरा हो, उसे प्रसारित होने से रोका जा सके। अभिव्यक्ति की आज़ादी का मतलब असीमित आज़ादी नहीं है, और यह किसी भी हालत में राष्ट्रीय हितों के खिलाफ नहीं होनी चाहिए।


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